समय का पहिया . पार्ट 1
अनुक्रम
बीस साल बाद ........(भूमिका) 7
रचना पक्ष : बीसवीं सदी में लिखी गई लघुकथाएँ
1. हिस्से का दूध 17
2. तनी हुई मुट्ठियाँ 18
3. शासन 19
4. अस्तित्वहीन नहीं 20
5. अपनी—अपनी मौत 21
6. नियति 22
7. नरभक्षी 23
8. ऐसे 24
9. ओवरटाइम 25
10. भय 26
11. खुरण्ड 27
12. ऐलान—ए—बगावत 28
13. गन्दगी 30
14. सफेद चोर 31
15. इज्जत के चोर 32
16. रुदन 33
17. एहसास 34
18. विवश मुट्ठी 35
19. खोखलापन 36
20. ट्यूशन 37
21. बन्द दरवाज़ा 38
22. अहम् 39
23. छिद्रान्वेषी 40
24. विडम्बना 41
25. अन्तर 42
26. ममता 43
27. जेल—नेता 44
28. उसका अस्तित्व 45
29. नवीन बोध 46
30. पूँजीनिवेश 47
रचना पक्ष : इक्कीसवीें सदी में लिखी गई लघुकथाएँ
1.अबाउट टर्न 51
2.अवाक् 52
3.आधी सदी के बाद 53
4.ऑल आउट 54
5.इज्जत का मोल 55
6.उनकी अपनी जिन्दगी 57
7.उसके बाद.... 58
8.एकतन्त्र 59
9.कल की ही बात है 61
10.किस्सा इतना ही है कि62
11.चिड़िया की आँख कहीं और थी 64
12.चैटकथा 66
13.छोटा, बहुत छोटा 67
14.टोपी 68
15.ठक—ठक...ठक—ठक 69
16.तुम इतना चुप क्यों हो दोस्त!71
17.तुम तो सडकों पर नहीं थे 72
18.दौड़ 73
19.पिंजरे में टाइगर 75
20.बात बहुत छोटी—सी थी 76
21.मकान घर नहीं होता 77
22.मजहब 78
23.मसालेदार भोजन की तीखी सुगन्ध 80
24.महल में तो राजा रहता है 81
25.महानगर का प्रेम—संवाद 82
26.मुआवजा 83
27.मुक्ति 85
28.मेड इन चाइना 86
29.मेरा बयान 87
30.राजनीति 88
31.रात की परछाइयाँ89
32.रुक्मिणी—हरण 90
33.वजूद की तलाश 91
34.विषपायी 92
35.वोट में तब्दील चेहरा 94
36.शोक—उत्सव 95
37.सन्नाटों का प्रकाश पर्व 96
38.समय का पहिया घूम रहा है98
39.साठ या सत्तर से नहीं 100
40.हड़कम्प 101
41.हाँ, मैं जीतना चाहता हूँ102
विचार पक्ष
1.मधुदीप का रचना—संसार / डॉ. सतीश दुबे 105
2.अभावों के टीसते घाव यानी मधुदीप का रचना—संसार/भागीरथ117
3.रूढ़ियों को तोड़ती लधुकथा / डॉ. जितेन्द्र 'जीतू'122
4.जिन्दगीभर हारता इन्सान और जीतने की जिद /
डॉ. बलराम अग्रवाल 134
हिस्से का दूध
उनींदी आँखों को मलती हुई वह अपने पति के करीब आकर बैठ गई। वह दीवार का
सहारा लिए बीड़ी के कश ले रहा था।
”सो गया मुन्ना....?“
”जी! लो दूध पी लौ।“ सिल्वर का पुराना गिलास उसने बढ़ाया।
”नहीं, मुन्ना के लिए रख दो। उठेगा तो....।“ वह गिलास को माप रहा था।
”मैं उसे अपना दूध पिला दूँगी।“ वह आश्वस्त थी।
”पगली, बीड़ी के ऊपर चाय—दूध नहीं पीते। तू पी ले।“ उसने बहाना बना कर दूध
को उसके और करीब कर दिया।
तभी—
बाहर से हवा के साथ एक स्वर उसके कानों से टकराया। उसकी आखें कुर्ते
की खाली जेब में घुस गईं।
”सुनो, जरा चाय रख देना।
पत्नी से कहते हुए उसका गला बैठ गया।
तनी हुई मुट्ठियाँ
वे चारों स्थानीय म्युनिसिपैलिटी में तीसरे दर्जे के लिपिक थे। नई—नई भर्ती थी, खून गर्म था। चारों ही विभाग में फैले भ्रष्टाचार से दुःखी थे।उनकी रगों का जवान खून बार—बार बगावत पर उतारू हो जाता। रोज ही वे इस व्यवस्था के खिलाफ कुछ करने के लिए गुप्त मन्त्रणा करते।
धीरे—धीरे उनकी मन्त्रणा के समाचार अधिकारियों तक पहुँचे। अधिकारी श्रीवास्तव जी इस विभाग में पिछले बीस वर्षों से थे। आज तक उनके सामने कभी ऐसी स्थिति नहीं आई थी। एक बार तो झल्लाए, लेकिन फिर उन्होने धैर्य से काम लेना ही उचित समझा।
अब उनमें से ‘क‘ एक तथाकथित बढ़िया सीट पर लगा हुआ है। ‘ग‘ को ‘क‘ से झगड़ा किए जाने के अपराध में सस्पेण्ड कर दिया गया है। ‘घ‘ को बार—बार वार्निग दी गई कि उसका काम ठीक नहीं है और अब उसे दूसरे विभाग में बदल दिया गया है। ‘ख‘ अलबत्ता वहीं उसी विभाग में अपनी पुरानी सीट पर है। वह बार—बार संघर्ष के लिये मानसिक तनाव से मुट्ठियाँ भी उछालता है, परन्तु साथ ही वह यह भी जानता है कि उसके संघर्ष में ‘क‘, ‘ग‘ और ‘घ‘ अब कभी नहीं आ पाएँगे। यह सोचकर उसकी तनी हुई मुट्ठियाँ शिथिलता से नीचे झुकने ही लगी थीं कि तभी बराबर से आकर ‘च‘, ‘छ‘ और ‘ज‘ ने उसकी मुट्ठियाँ हवा में ही थाम ली हैं।
शासन
स्टेशन के सामने उसका टी—स्टॉल था। शुरू में उसकी तीस—चालीस कप चाय ही बिकती थी।वह कप—प्लेट अपने हाथ से ही साफ किया करता था। सभी जाति के अमीर—गरीब उससे चाय पीते थे।
अब उसकी दुकान चल निकली है। सारे दिन में सैंकड़ों कप चाय बिकती है और अब एक लौंडा भी उसने कप—प्लेट धोने व चाय पकड़ाने के लिए रख लिया है।
आज गाँव में पशुओं का मेला था। चाय के लिये लोगों की भीड़ लगी थी। दोपहर बाद काम ढीला हुआ तो वह कुछ सामान लेने घर आया। उसके चेहरे पर अधिक चाय बिकने का उत्साह था।
”अब क्या हाल है?“ क्षण भर के लिए वह बीमार पत्नी के पास आ बैठा।
”दर्द से मरी जा रही हूँ। उठती हूँ तो चक्कर आने लगते हैं। बदन बहुत दुःख रहा है....जरा....जरा एक कप चाय तो बना दो।“ पत्नी कराहन लगी थी।
”हूँऽऽऽ! पटरानी है जो तेरे लिये चाय बनाऊँ!”
पत्नी ने निरीह भाव से देखा।
”घूरती काहे को है; जोरू का गुलाम नहीं हूँ जो पैर दबाऊँ....हूँ...” अहम् से गर्दन अकड़ाए, सामान सहित वह दुकान पर जा पहुँचा।
”ओ लाला! एक बटा दो.....” कल्लू चमार की कर्कश आवाज उभरी और वह गर्दन झुका चाय बनाने लगा।
अस्तित्वहीन नहीं
उस रात कड़ाके की सर्दी थी। सड़क के दोनो ओर की बत्तियों के आसपास कोहरा पसर गया था।
रोज़—क्लब के निकास—द्वार को पाँव से धकेलते हुए वह लड़खड़ाता हुआ बाहर निकला। झट दोनों हाथ गर्म पतलून की जेबों के अस्तर को छूने लगे।
बरामदे में रिक्शा खड़ी थी। उसकी ड़बल सीट पर पतली सी चादर मुँह तक ढाँपे, चालक गठरी—सा बना लेटा था। घुटने पेट में घुसे थे।
रिक्शा देखकर उसका चेहरा चमक उठा।
”खारीबावली चलेगा...?“ वह रिक्शावाले के समीप पहुँचा। उधर से चुप्पी रही।
”चल दो रूपए दे देंगे।“ युवक ने उसके अन्तस् को कुरेदा।
”दो रूपए से जियादा आराम की जरूरत है हमका।“
”साले! पेट भर गया, लगता है....।“ नशे में बुदबुदाता हुआ जैसे ही वह युवक आगे बढ़ा.....
.....तड़ाकऽऽऽ....रिक्शावाले का भारी हाथ उसके गाल पर पड़ा।
क्षण भर को युवक का नशा हिरन हो गया। वह अवाक् सा खड़ा उसके मुँह की ओर देख रहा था।
रिक्शावाला छाती फुलाए उसके सामने खड़ा था।
अपनी—अपनी मौत
लाल चौक के दाईं ओर, दुकान के सामने बरामदे में एक लाश पड़ी है। आते—जाते लोग दो पल को कौतूहल वश वहाँ ठहर रहे हैं। ”क्या हुआ? कैसे हुआ?“ पूछने पर कोई स्थल—दर्शक अपनी आवाज में दर्द घोलता है, ”राह चलते इस व्यक्ति को हार्ट—अटैक हुआ। कोई कुछ करे, इससे पहले ही इसने इस बरामदे में दम तोड़ दिया।“
समय बीत रहा है। विलाप करता हुआ एक परिवार लाश के चारों ओर एकत्र हो रहा है। छाती पीटकर विलपनेवाले लाश के निकट, जोर—जोर से रोनेवाले उनके पीछे और उदास चेहरा लटकाए अन्त में; एक चक्रव्यूह—सा बना रहे हैं।
शायद यह मृतक की पत्नी है जो छाती पीटती हुई विलाप कर रही है :
”हाय रे! अब इन कच्ची कापलों को कौन सँभालेगा?“ विधवा लाश पर बेहोश हुई जा रही है।
निकट ही मृतक का बीस वर्षीय लड़का मुँह लटकाए सोच रहा है : डैडी जिन्दा रहते तो अगले वर्ष उसकी बी.ए. पूरी हो जाती। अब न जाने.....?
छोटा लड़का उदासी में डूब रहा है : पापा ने वायदा किया था कि इस साल पास होने पर वे मुझे साइकल दिलवाएँगे। मगर अब.....?
सब अपने—अपने में उलझे हैं। शाम करीब आ रही है। मुर्दा चीख रहा है कि कोई उसे उठा कर श्मशान तक ले जाने की भी तो सोचे!
नियति
”ऐ...ऐ...झल्ली....“ टाई की नॉट कसते हुए पैण्टवाले बाबू ने पुकारा ।
“हाँ बाबूजी!“ झल्ली को सिर से उतार, वह अधनंगा आदमी ठहर गया।
”यह देसी घी का पीपा ‘फर्राशखाने ले जाना है। बोल, कितने पैसे लेगा?“
”दे देना बाबूजी!...“ कहकर उसने पीपा सिर पर उठा लिया था।
मकान की दूसरी मंजिल चढ़ते हुए झल्लीवाला हाँफने लगा था। उसे पछतावा हो रहा था—जाने बाबू कितने पैसे दें......! एक क्षण रुक कर वह साँस लेने लगा।
”देसी घी का है। क्यों, दम फूल रहा है? बस, एक मंजिल ओर चढना है।“
बाबू ने झल्लाकर कहा।
झल्लीवाले को क्रोध तो बहुत आया पर उसके सिर पर बोझ था।
ऊपर पहुँचा तो पीपा उतार कर उसने घड़ी—भर राहत लेनी चाही, तभी बाबू ने उसकी ओर मैली सी अठन्नी बढ़ाई।
”बस, अठन्नी बाबूजी? तीन तो जीने चढ़े हैं।“
”और क्या पाँच रुपये होंगे? लेने हों तो ले, नहीं तो रास्ता नाप। हुँ....!“बाबू अपने घर में घुस कर गुर्राया।
एक बार तो झल्लीवाले का मन हुआ कि वह अठन्नी को फेंक दे, लेकिन उसके हाथ ऐसा न कर सके।
”साले! खाएँगे देसी घी! पीपे में क्या गोबर भरा होगा! देसी घी खाने वाले क्या....“बड़बड़ाता हुआ वह जीना उतरने लगा!